दिशाएँ (Directions)
दिशाएँ वह ज्ञान है जिसके द्वारा किसी स्थान विशेष की जानकारी सुगमता से प्राप्त हो सकती है।
मुख्य दिशाएँ चार होती है। ये उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के नाम से जानी जाती है।
भारतीय धार्मिक पद्धति में इनके मध्य के कोणो को ईशान्य, वायव्य, आग्नेय व नैऋत्य के नाम से जाने जाते हैं। इनके अतिरिक्त आकाश और पाताल को भी दिशा माना गया है। इस प्रकार दस दिशा मानी गई हैं।
भौगोलिक ज्ञान एवं सूक्ष्मता हेतु इन्हें सोलह भागों में विभक्त की गई है। अति सूक्ष्मता हेतु इन्हें 360° में विभक्त किया गया है।
दिशा ज्ञात करने के साधनः
दिशा ज्ञात करने के तीन साधन है।
(i) प्राकृतिक, (ii) सांस्कृतिक, (iii) चुम्बकीय
इनके अतिरिक्त घड़ी से भी दिशा जानी जा सकती हैं।
(i) प्राकृतिक साधनः-
(अ) दिन में सूर्य की ओर मुहँ करके खड़े होने पर मुहँ के सामने पूर्व दिशा, पीठ की ओर पश्चिम दिशा, दाहिने हाथ की ओर दक्षिण दिशा और बाँये हाथ की ओर उत्तर दिशा होगी
(ब) रात्री मेंः रात्री में नक्षत्रों द्वारा दिशा बोध किया जाता है। इसमें से कोई न कोई नक्षत्र रात्री के किसी न किसी समय में दिखाई देता है।
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ये निम्नवत् हैं-
बडा सप्तऋषि मण्डल (Great Bear): -
बडा सप्तऋषि मण्डल सात तारों का समूह है। इसके अग्र भाग के दो AB तारे जो (Pointer) पाइन्टर कहलाते हैं. इनकी सीध में AB की आन्तरिक दूरी से लगभग पाँच गुना दूरी पर ध्रुव तारा होता है जो सदा भौगोलिक उत्तर या वास्तविक उत्तर (True North) को दर्शाता है।
लघु सप्त ऋषि मण्डल (Little Bear): -
लघु सप्त ऋषि मण्डल भी सात तारों का समूह है जो बड़े सप्तऋषि से छोटा होता है। लघु सप्तऋषि मण्डल का सातवाँ तारा ही ध्रुव तारा होता है।
ब्रहा राक्षस (शिकारी) (मगृशिरा नक्षत्र) Orian:
इन तारा समूह की आकृति एक बड़े मानवाकार होती है। इसके सिर के तीन तारे त्रिभुजाकार मध्य के तीन) तारे लगभग समान दूरी पर होते हैं। (इन तीन तारों को हिरणी कहा जाता है। ये प्रायः जैष्ठ माह में दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। कमर (पेटी) के नीचे तीन तारे कमर में लटकी हुई तलवार के रुप में समान दिखाई देते हैं।
कसोपिया (कश्यप) (Cassiopiya):
यह पाँच तारों का समूह है। इसकी आकृति अंग्रजी वर्णमाला के W अक्षर के समान Pole Star होती । इसकी चौड़ी V को समद्धिभाग करने वाली रेखा ध्रुव तारे को इंगित करती है।
(ii). सांस्कृतिक माध्यम (Cultural): -
सांस्कृतिक माध्यम से सामान्यतया एक दिशा का बोध होता है जिससे अन्य दिशाएँ जानी जा सकती हैं।
• संध्या-पूजा करने वाले का मुँह सदा पूर्व दिशा की ओर होता है।
• नवाज अदा कर रहे व्यक्ति का मुँह सदा पश्चिम की ओर होता है।
• शिवलिंग की जलाधारी का जल-निकास-मार्ग उत्तर दिशा की ओर होता है। (बारह ज्योर्तिलिंगों को छोड़कर क्योंकि इनका जल-निकास-मार्ग पूर्व दिशा की ओर होता है)
• कब्र में लगा बड़ा पत्थर उत्तर दिशा की ओर और छोटा पत्थर दक्षिण दिशा की ओर होता है
• हनुमानजी का मुँह सदा दक्षिण दिशा में होता है।
• घड़ी द्वारा भी उत्तर-दक्षिण दिशा ज्ञात की जा सकती हैं।
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(iii). चुम्बक द्वारा (Magnate): -
यदि चुम्बक को धागे से मध्य में बाँधकर लटकाया जावे तो चुम्बक का एक सिरा उत्तर व दूसरा दक्षिण दिशा की ओर घूमकर स्थिर हो जावेगा। इसी आधार पर दिक् सूचक यंत्र (Magnatic Compass) की रचना की गई है। मेग्नेटिक कम्पास को यदि, समतल सतह पर रखा दिया जावे तो कम्पास के भीतर की चुम्बकीय सुई जिस पर अंग्रेजी का N अंकित होता है, उत्तर दिशा की ओर धूमकर स्थिर हो जावेगी। कुछ मेग्नेटिक कम्पास में सुई पर एक डायल लगा रहता है। जिस पर 16 दिशाएँ अंकित होती हैं। सुई के साथ यह डायल धूमता है और डायल पर अंकित N उत्तर दिशा (चुम्बकीय उत्तर) (Magnatic North) की ओर स्थिर हो जाता है।
कुछ मेग्नेटिक कम्पास के डायल पर से 360° के अंक लिखे होते हैं। जो प्रायः भू-मापन (Survery) के काम में लिया जाता है। जिसे प्रिजमेटिक कम्पास (Prismatic Compass, रहते है।
(iv). घड़ी और सूर्य से दिशा-ज्ञानः
घडी को धूप में किसी समतल सतह पर इस प्रकार रखो कि घड़ी की छोटी सुई दिशा की और हो। अर्थात् सुई उसकी छाया को पूर्ण रूप से ढकले। इस सुई और बारह के अंक के बीच के कोण को समद्धि भाग करने पर विभाजक रेखा 'दक्षिण दिशा को बतलायगी। यही रेखा घड़ी के डायल के केन्द्र को मिलाती है। ऊपर की और यह रेखा उत्तर को दर्शायगी।